*चाय के कप से मधुमेह तक : एक मौन चेतावनी.*
#समय के साथ चाय के पात्रों का आकार भी बदल गया है। कभी जो बड़े कप हुआ करते थे, आज उनकी जगह बोतल के ढक्कनों जैसे छोटे-छोटे कपों ने ले ली है। यह चलन बंगाल से निकलकर बिहार तक पहुँच चुका है, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी इसकी धमक है। हाँ, हरियाणा और पंजाब में अब भी चाय के कप अपने भीमकाय स्वरूप में मौजूद हैं।
✍️ लेखक : प्रो. प्रमोद भारतीय
प्राचार्य, गोरेलाल मेहता कॉलेज, बनमनखी
(यह लेख लेखक के निजी अनुभव एवं दृष्टिकोण पर आधारित है।)
दफ़्तरों में बैठकर काम करने वालों की दिनचर्या में चाय अब केवल पेय नहीं, बल्कि औपचारिकता बन चुकी है। कोई अभ्यागत आए और चाय न परोसी जाए—यह शिष्टाचार के विरुद्ध माना जाता है। ऐसे में चाय भी अब एक नहीं, अनेक रूपों में उपस्थित है—किसी को लेमन टी भाती है, तो किसी को जिंजर टी। कोई ग्रीन टी का शौकीन है, तो कोई स्पाइसी टी का। पुराने लोग अब भी दूध वाली चाय पर अड़े हुए हैं।
समय के साथ चाय के पात्रों का आकार भी बदल गया है। कभी जो बड़े कप हुआ करते थे, आज उनकी जगह बोतल के ढक्कनों जैसे छोटे-छोटे कपों ने ले ली है। यह चलन बंगाल से निकलकर बिहार तक पहुँच चुका है, उत्तर प्रदेश और उत्तराखंड में भी इसकी धमक है। हाँ, हरियाणा और पंजाब में अब भी चाय के कप अपने भीमकाय स्वरूप में मौजूद हैं।
पर असली सवाल यह नहीं है कि चाय किस कप में पी जा रही है, बल्कि यह है कि चौबीस घंटे में हम कितनी चाय पी रहे हैं? यदि आप किसी संस्थान के मुखिया हैं, तो जितनी बार आपसे कोई मिलने आता है, उतनी बार चाय आपके साथ भी पीनी पड़ती है। बड़े संस्थानों में यह सिलसिला दिन भर चलता रहता है। ऐसे में यदि औसतन बीस कप चाय भी पी ली जाए, तो कम से कम बीस चम्मच चीनी शरीर में चली ही जाती है।
इसके अलावा भोजन के साथ मिठाइयाँ, लस्सी, सेवइयाँ आदि जोड़ लें तो आसानी से बीस चम्मच चीनी और पेट में पहुँच जाती है। यानी कुल मिलाकर चालीस चम्मच चीनी प्रतिदिन! और यह सर्वविदित है कि 50–55 वर्ष की अवस्था के बाद मधुमेह का खतरा स्वतः बढ़ने लगता है। ऐसे में यह प्रश्न स्वाभाविक है कि इस अनावश्यक चीनी से कैसे बचा जाए। इसी विषय पर मैं पिछले कुछ वर्षों से मनन और शोध कर रहा हूँ।
हाल ही में पूर्णियाँ विश्वविद्यालय मुख्यालय में माननीय कुलपति प्रोफेसर विवेकानन्द सिंह जी के साथ प्रवेश समिति की बैठक में शामिल होने का अवसर मिला। सदस्यों के आतिथ्य में ग्रीन टी परोसी गई। सभी ने पी—मैंने भी। कुलपति जी भी पी रहे थे। पर जब मैंने ध्यान से देखा, तो एक दिलचस्प बात सामने आई। सभी के कप में गर्म पानी के साथ ग्रीन टी का बैग था, लेकिन कुलपति जी के कप में केवल गर्म पानी था—कोई टी बैग नहीं।
जब मैंने इस ओर संकेत किया, तो कुलपति जी मुस्कुराते हुए बोले— “मैं इसे चाय समझकर ही पी लेता हूँ। मैं किसान का बेटा हूँ, थोड़ा कंजूस हूँ, एक टी बैग बचा लेता हूँ।” मैं समझ गया कि यह केवल मज़ाक नहीं था। दरअसल, दिन भर में कितने लोगों के साथ वे चाय पी सकते हैं? यही सोचकर उन्होंने कम चाय पीने की एक व्यावहारिक मैकेनिज़्म विकसित कर ली है।यह न केवल स्वास्थ्य-सम्मत है, बल्कि समय और शरीर—दोनों की बचत करता है।
यदि हम सभी अपने जीवन में इस सरल मैकेनिज़्म को अपनाएँ, तो निश्चय ही मधुमेह जैसे रोगों के आक्रमण को काफी हद तक टाल सकते हैं। कभी-कभी गर्म पानी को ही चाय समझकर पी लेना भी जीवन की सबसे समझदार चुस्की साबित हो सकती है।





