मैं पूर्णिया हूं… अब सिर्फ यही आस , पूरी हो जाए एक अदद एयरपोर्ट की मुराद…
वरिष्ठ पत्रकार अखिलेश चंद्रा
मैं पूर्णिया हूं. आज मेरे अवतरण का जश्न मनाया जा रहा है. अपनी उम्र के 253 वें पड़ाव पर आ गया हूं…पर यह ठहराव नहीं है. प्रगति के पथ पर चलते जाना है… निरंतरता बनाए रखना है पर इतिहास के कुछ पन्ने अविस्मरणीय होते हैं, शुरुआत कहां से की, अभी कहां हैं और कल कहां होंगे, इसे जानने के लिए हमें पीछे मुड़कर भी देखना होता है. कालचक्र से जूझते हुए मैंने वन सम्पदा की इस धरती पर सभ्यता का उदय देखा तो कथा शिल्पी फणीश्वर नाथ रेणु के मैला आंचल की बिगड़ती-बनती तस्वीर भी देखी. मैंने पुण्ड्र का राज्य पुण्ड्रवर्धन देखा तो अपने चौड़े सीने पर अज्ञातवास के लिए पाण्डवों को अवसर भी दिया. पाल और सेन वंश के राजाओं की दासता, सैफ खान का शासन, नवाब सैयद खां और शेर अली खां की नबाबी,शौकत अली जंग, सिराजुद्दौला की सियासत और जलालुद्दीन का जलवा… सब कुछ मुझे याद है! मैंने कभी मुगल सल्तनत की बादशाहत देखी है तो व्रिटीश साम्राज्य को डूबते हुए भी देखा है!
कालान्तर में बहुत कुछ बदल गया. जंगल साफ हो गये, इमारतें खड़ी हो गईं. कच्ची उबड़-खाबड़ पगडंडियों की जगह कोलतार की चिकनी सड़कों ने ले ली. नदियों की धार पर बाजार बस गये. पुरैन के पत्ते लुप्त हो गये और उस जमाने का ‘पुरैनिया’ आज पूर्णिया हो गया. मैं निरंतर बदलाव के दौर से गुजर रहा हूं. मेरा बुनियादी ढांचा ही बदल गया है.कभी बैलगाड़ी की सवारी होती थी पर आज रेलगाड़ी की सवारी होने लगी है.अब तो न केवल लंबी दूरी के लिए लग्जरी बसें चलने लगी हैं बल्कि दरवाजे पर लग्जरी गाड़ियां भी शान बढ़ा रही हैं. आज अपने पास विश्वविद्यालय है तो कृषि, मेडिकल और इंजनीयरिंग की पढ़ाई के लिए कालेज भी हैं. अहम तो यह है कि विकास के दौर में मैं अब मेट्रोपोलिटन संस्कृति में उतर रहा हूं और बड़े-बड़े मॉल्स, मल्टीप्लेक्स, हाईटेक हॉस्पीटल्स मुझे महानगर का लुक देने लगे हैं. आधुनिकता और चमक-दमक को देख दिल्ली में रहने वाले लोग कहते हैं कि अब पूर्णिया, लगता है कि बड़ा शहर हो गया है. कालांतर में हमने बहुत कुछ हासिल किया पर मन में एयरपोर्ट और हवाई उड़ान की मुराद शेष रह गई. वैसे, मैं निराश नहीं हूं… आशा है कि किसी दिन निकलेगा सूरज कोहरों के बीच से…!!!