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*पूर्णिया के सपूतों ने सीने पर खाईं थीं अंग्रेजों की गोलियां, आज भी गुमनाम हैं कई नाम.*

*1942: बनमनखी से फूटा विद्रोह, पटरियां उखाड़ दी गईं.*

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*पूर्णिया के सपूतों ने सीने पर खाईं थीं अंग्रेजों की गोलियां, आज भी गुमनाम हैं कई नाम.*

✍️सुनील सम्राट✍️

सम्पूर्ण भारत,पूर्णियां (बिहार):-जब हम भारत की स्वतंत्रता की बात करते हैं तो हमारे ज़ेहन में दिल्ली, मुंबई, इलाहाबाद, पटना जैसे बड़े शहरों के नाम गूंजते हैं। परंतु इतिहास के पन्नों में ऐसे कई छोटे जिले हैं, जिनकी वीरता को शायद ही कभी जगह मिलती है। बिहार का पूर्णिया जिला ऐसा ही एक क्षेत्र है, जहां आज़ादी के लिए लोगों ने तन, मन, धन की आहुति दी, गोलियों का सामना किया, जेलों में यातनाएं सहीं और शहीद हो गए।

 

यह विडंबना ही है कि जिन वीरों ने ब्रिटिश साम्राज्य की नींव हिला दी, उन्हें ना तो इतिहास ने जगह दी और ना ही पीढ़ियों ने उन्हें पहचाना। आज जरूरत है उन गुमनाम स्वतंत्रता सेनानियों की यादों को संजोने की, जिनका बलिदान हमारे स्वर्णिम स्वतंत्र राष्ट्र की नींव बना।

 

जब पूर्णिया में गूंजा था नमक आंदोलन का बिगुल:-12 मार्च 1930 – देश में ब्रिटिश नमक कानून के खिलाफ महात्मा गांधी ने दांडी यात्रा की शुरुआत की। उसी दिन पूर्णिया में भी क्रांति की ज्वाला फूटी।रुपौली प्रखंड के टीकापट्टी गांव में कारी कोसी नदी के किनारे पूर्णिया के क्रांतिकारियों ने भी नमक बनाकर ब्रिटिश कानून को खुली चुनौती दी।इस आंदोलन का नेतृत्व कर रहे थे अशर्फी लाल वर्मा। उनके साथ बोकाय मंडल, सत्येन्द्र नाथ राय, हरलाल मित्रा, अनाथकांत बसु, केएल कुंडू, गोकुल कृष्ण राय, सुखदेव नारायण सिंह आदि भी नमक सत्याग्रह में शामिल हुए।जब अंग्रेजों ने इन पर नकेल कसनी चाही, तब भी ये क्रांतिकारी लगातार जनता में आजादी की अलख जगाते रहे। अंततः अशर्फी लाल वर्मा को गिरफ्तार कर हजारीबाग जेल भेज दिया गया, जहां उन्होंने एक वर्ष की सजा काटी।विशेष बात यह है कि जब सुभाष चंद्र बोस पूर्णिया आए, तो उनका स्वागत करने की जिम्मेदारी भी अशर्फी बाबू को ही दी गई थी।

 

1942: बनमनखी से फूटा विद्रोह, पटरियां उखाड़ दी गईं:-‘भारत छोड़ो आंदोलन’ के दौरान पूर्णिया के आंदोलनकारियों ने अंग्रेजों के खिलाफ हिंसक विरोध शुरू किया।बनमनखी थाना क्षेत्र के दमगड़ा गांव के स्वतंत्रता सेनानी अनूप लाल मेहता ने नेतृत्व संभाला। उनके नेतृत्व में बनमनखी और आसपास के क्षेत्रों में रेल की पटरियां उखाड़ दी गईं, ताकि ब्रिटिश सेना और प्रशासन की आवाजाही ठप हो जाए।पूर्णिया कॉलेज के पूर्व प्राचार्य डॉ. राजीव नंदन यादव के पिता हरिकिशोर यादव ने भी इस आंदोलन में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई।जब आंदोलन ने उग्र रूप लिया, तो बनमनखी थाना पर कब्जा कर वहां तिरंगा फहरा दिया गया।इसके लिए अनूप लाल मेहता को फांसी की सजा सुनाई गई थी, लेकिन बाद में पटना हाईकोर्ट से वह बरी हो गए।

 

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रुपौली की आग: अंग्रेज अफसरों को जिंदा जला डाला गया:-25 अगस्त 1942 का दिन पूर्णिया के इतिहास में एक जलते हुए विद्रोह का प्रतीक है।इस दिन सरसी के नरसिंह नारायण सिंह के नेतृत्व में हजारों आंदोलनकारियों ने रुपौली थाना पर कब्जा कर लिया और वहां मौजूद तीन अंग्रेज अफसरों को जिंदा जला दिया गया।इस घटना का जिक्र स्वतंत्रता सेनानी और पूर्व मंत्री कमलदेव नारायण सिन्हा ने अपनी पुस्तक में भी किया है।ब्रिटिश हुकूमत इस घटना से हिल गई। जवाबी कार्रवाई में धमदाहा में 25 आंदोलनकारियों को गोलियों से भून डाला गया, वहीं बनमनखी में चार लोग शहीद हो गए।

 

कुछ और वीर जो इतिहास के पन्नों से मिटा दिए गए:-

  1. ध्रुव कुंडू – कटिहार में तिरंगा फहराते समय गोली का शिकार हुए।
  2. पुण्यानंद झा – 1918 में ब्रिटिश नौकरी छोड़ी और स्वतंत्रता आंदोलन में कूद पड़े।
  3. डॉ. किशोरी लाल कुंडू – 1936 के अवज्ञा आंदोलन में प्रमुख भूमिका।
  4. डॉ. लक्ष्मी नारायण सुधांशु – 1940 में व्यक्तिगत सत्याग्रह के दौरान जेल गए।
  5. सतीनाथ भादुड़ी – 26 अगस्त 1942 को जेल भेजे गए।
  6. डॉ. राजेन्द्र प्रसाद – 1931 में स्वराज आश्रम, रुपौली आए।
  7. महात्मा गांधी – 10 अप्रैल 1934 को टीकापट्टी में पहुंचे।

 

इतिहास जो बाकी है: पूर्णिया के बलिदान का लेखा-जोखा:-

  1. 12 मार्च 1930 नमक आंदोलन की शुरुआत, पूर्णिया में भी आंदोलन शुरू ।
  2. 1931 अशर्फी लाल वर्मा जेल से रिहा।
  3. 1940 व्यक्तिगत सत्याग्रह में कई नेता जेल गए।
  4. 24 अगस्त 1942 पूर्णिया जेल में आंदोलनकारियों पर लाठीचार्ज।
  5. 25 अगस्त 1942 रुपौली थाना कब्जा, तीन अंग्रेज अफसर मारे गए।
  6. 25 अगस्त 1942 धमदाहा में 25, बनमनखी में 4 शहीद।
  7. 26 अगस्त 1942 सतीनाथ भादुड़ी को जेल।
  8. कुल शहादत तत्कालीन पूर्णिया जिले के 51 स्वतंत्रता सेनानियों ने बलिदान दिया।

 

निष्कर्ष:-

पूर्णिया सिर्फ एक ज़िला नहीं, एक क्रांतिकारी धरती है। जिस मिट्टी ने भारत माता की जय बोलते हुए अपने लालों की बलि दी, आज उसी मिट्टी में इतिहास की कई कहानियां दबी पड़ी हैं।नयी पीढ़ी को यह जानने की ज़रूरत है कि आज़ादी के सफर में पूर्णिया भी अग्रिम पंक्ति में खड़ा था, सीना ताने, गोली खाने को तैयार।यह वक्त है इन वीरों की कहानियों को फिर से जिंदा करने का, स्मारकों में संजोने का और आने वाली पीढ़ी को गर्व से कहने का – कि हम उस ज़मीन से हैं, जहां इतिहास ने स्वतंत्रता की इबारत लिखी थी।

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