*बनमनखी चीनी मिल: वादों की मिठास और साइलो की कड़वी हकीकत.*
*चीनी मिल खोलने की घोषणा, लेकिन ज़मीन पर अडानी का साइलो — सवालों के घेरे में सरकारी नीयत........?..........#पूरी_ख़बर_पढ़ने_के_लिए_नीचे👇#दिए_गए_लिंक_पर_क्लिक_करें।*
बनमनखी (पूर्णिया)।:बिहार की औद्योगिक बदहाली और किसानों की टूटती उम्मीदों की कहानी अगर कहीं सबसे स्पष्ट दिखती है, तो वह बनमनखी की बंद पड़ी चीनी मिल है। वर्षों से जर्जर खंडहर में तब्दील यह मिल अब एक बार फिर चर्चा में है, लेकिन वजह उम्मीद नहीं बल्कि विरोधाभास है। एक ओर सरकार बंद पड़ी चीनी मिलों को पुनर्जीवित करने की बात कर रही है, वहीं दूसरी ओर बनमनखी की चीनी मिल की भूमि बियाडा को ट्रांसफर कर उस पर अडानी समूह की कंपनी द्वारा साइलो का निर्माण कराया जा रहा है।यह स्थिति सरकार की घोषणाओं और ज़मीनी हकीकत के बीच बढ़ते फासले को उजागर करती है।
चुनावी वादे और प्रशासनिक वास्तविकता:विधानसभा चुनाव के दौरान प्रधानमंत्री और मुख्यमंत्री द्वारा बिहार में 25 बंद चीनी मिलों को खोलने की घोषणा ने किसानों और मजदूरों में नई उम्मीद जगाई थी। केंद्रीय गृह एवं सहकारिता मंत्री अमित शाह ने भी इस दिशा में सकारात्मक संकेत दिए थे। हाल ही में मुख्य सचिव की अध्यक्षता में गठित कमेटी ने इस उम्मीद को और मजबूत किया। लेकिन बनमनखी के मामले में यह उम्मीद जल्द ही सवालों में बदल गई। क्योंकि जिस जमीन पर कभी हजारों किसानों की आजीविका टिकी थी, वह जमीन अब औद्योगिक विकास के नाम पर बियाडा को सौंप दी गई है।
जब मशीनें बिक गईं और सपने भी: बनमनखी चीनी मिल वर्ष 1997-98 में बंद कर दी गई थी। मिल बंद होने के बाद न केवल उत्पादन ठप पड़ा, बल्कि धीरे-धीरे मिल के अंदर मौजूद मशीनें, पार्ट्स और उपकरण कबाड़ के रूप में बेच दिए गए। आज हालात यह हैं कि मिल परिसर में सिर्फ जर्जर दीवारें और उजड़ा ढांचा बचा है। सवाल यह है कि जिस मिल के ढांचे को ही खत्म कर दिया गया, उसके पुनरुद्धार की योजना आखिर किस आधार पर बनाई जा रही है?
2020 की कवायद भी साबित हुई चुनावी रस्म: यह पहला मौका नहीं है जब बनमनखी चीनी मिल को लेकर उम्मीदें जगाई गई हों। वर्ष 2020 में भी विधानसभा चुनाव से पहले मिल को दोबारा चालू करने की कवायद तेज हुई थी। मंत्रियों और अधिकारियों ने स्थल निरीक्षण किया, बयान दिए गए, लेकिन नतीजा वही ढाक के तीन पात। अब एक बार फिर वही प्रक्रिया दोहराई जा रही है — समिति, समीक्षा और आश्वासन।
साइलो बनाम चीनी मिल : विकास का कैसा मॉडल?: सरकार का तर्क है कि साइलो निर्माण से अनाज भंडारण क्षमता बढ़ेगी और इससे सार्वजनिक वितरण प्रणाली मजबूत होगी। इसमें कोई संदेह नहीं कि साइलो एक जरूरी संरचना है, लेकिन सवाल प्राथमिकता का है। क्या जिस क्षेत्र की पहचान चीनी मिल और गन्ना खेती से रही हो, वहां बिना वैकल्पिक योजना के मिल की जमीन उद्योगपतियों को सौंप देना न्यायसंगत है? क्या हजारों किसानों और मजदूरों की रोजी-रोटी से बड़ा केवल भंडारण ढांचा हो सकता है?
कहां बनेगी मिल? यह सबसे बड़ा सवाल: यदि सरकार वास्तव में बनमनखी में चीनी मिल को फिर से चालू करना चाहती है, तो सबसे अहम सवाल यह है कि मिल बनेगी कहां? क्या सरकार किसी दूसरी जगह जमीन उपलब्ध कराएगी? या फिर यह घोषणा भी बाकी घोषणाओं की तरह फाइलों में सिमट कर रह जाएगी? अब तक जिला प्रशासन को इस संबंध में कोई स्पष्ट दिशा-निर्देश नहीं मिला है। फंड, जमीन और कार्ययोजना — तीनों ही बिंदुओं पर स्थिति अस्पष्ट है।
बनमनखी चीनी मिल का मामला सिर्फ एक मिल का नहीं, बल्कि बिहार की औद्योगिक नीति, राजनीतिक वादों और प्रशासनिक इच्छाशक्ति की परीक्षा है। यदि सरकार सच में किसानों और मजदूरों के हित में गंभीर है, तो उसे स्पष्ट रोडमैप के साथ सामने आना होगा। अन्यथा, यह आशंका गहराती जाएगी कि चीनी मिल खोलने की घोषणाएं सिर्फ चुनावी शक्कर हैं, जिनकी मिठास खत्म होते ही किसान फिर कड़वी हकीकत में लौट आते हैं।






