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“आजाद दस्ता के प्रथम नायक: सात बार जेल, कालापानी और जीवनभर का संघर्ष”

"स्व. नरसिंह नारायण सिंह - सरसी के सपूत, जिन्होंने अंग्रेजों से लेकर नेपाल के राणा शासन तक से लोहा लिया"

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“स्व. नरसिंह नारायण सिंह – सरसी के सपूत, जिन्होंने अंग्रेजों से लेकर नेपाल के राणा शासन तक से लोहा लिया”

✍️सुनील सम्राट✍️

 

“आजाद दस्ता के प्रथम नायक: सात बार जेल, कालापानी और जीवनभर का संघर्ष”

सम्पूर्ण भारत |पूर्णिया|:-पूर्णिया जिले के सरसी गांव की मिट्टी ने भारत को ऐसे सपूत दिए हैं, जिनका बलिदान और संघर्ष पीढ़ियों तक प्रेरणा देता रहेगा। इन्हीं महान सपूतों में एक थे स्व. नरसिंह नारायण सिंह, जिनका जन्म 1911 में हुआ। उनके पिता स्व. हिसाबी सिंह और चाचा रव. जगदीश सिंह भी स्वतंत्रता संग्राम में सक्रिय थे और अंग्रेजी हुकूमत के खिलाफ लड़ते हुए बालासोर (उड़ीसा) की जेल में बंद रहे।

स्व. नरसिंह नारायण सिंह ने स्वतंत्रता आंदोलन की बागडोर संभालते हुए सात बार जेल की यातनाएं सही और आजीवन कारावास व कालापानी की सजा भी भुगती। वे डॉ. राजेंद्र प्रसाद, विनोबा भावे और जयप्रकाश नारायण जैसे महापुरुषों के निकट सहयोगी रहे।

 

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वर्ष-1930 में पहली गिरफ्तारी:- जब वे महज 10वीं कक्षा के छात्र थे, सरसी में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार कर लिया। 1932 में अपने पिता और चाचा के साथ कैम्प जेल, पटना में कैद रहे।

आजाद दस्ता के प्रथम नायक:- 1942 के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान जयप्रकाश नारायण ने “आजाद दस्ता” का गठन किया, जिसके पहले नायक स्व. सिंह बने। 1930 से 1942 के बीच उन्हें सात बार जेल जाना पड़ा।

नेपाल और सिक्किम में संघर्ष:- उन्होंने नेपाल में लोकतंत्र कायम करने के लिए राणा शासन का विरोध किया और नेपाली जेल में भी बंद रहे। 1960 से पहले पं. जवाहरलाल नेहरू और जयप्रकाश नारायण के निर्देश पर वे खादी और गांधीवादी विचारधारा के प्रचार के लिए साथियों के साथ सिक्किम गए, जो उस समय स्वतंत्र राज्य था।

भूदान आंदोलन में अहम भूमिका:-वे भूदान यज्ञ कमिटी, बिहार के अध्यक्ष भी बने और लंबे समय तक इस दायित्व को निष्ठापूर्वक निभाया।

अंतिम पड़ाव और अमरता:- 29 नवंबर 2007 को सरसी स्थित अपने पैतृक आवास पर उन्होंने अंतिम सांस ली और सदा के लिए अमर हो गए।

 

समाज के नाम संदेश:-“दुख की बात है कि आज़ादी के बाद से अब तक, आजाद दस्ता के प्रथम नायक स्व. नरसिंह नारायण सिंह के सम्मान में न तो कोई स्मारक बना और न ही उनके नाम का कोई पुस्तकालय।जिन्होंने अपना पूरा जीवन राष्ट्र की सेवा में लगा दिया, उनके योगदान को आज भी वह मान्यता नहीं मिली जिसकी वे हकदार थे।अब समय आ गया है कि समाज, जनप्रतिनिधि और युवा पीढ़ी आगे आए…ताकि सरसी की मिट्टी में जन्मे इस अमर सपूत के नाम का स्मारक और पुस्तकालय बनाया जा सके, जो आने वाली पीढ़ियों को उनके बलिदान की याद दिलाता रहे।”

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