Sampurn Bharat
सच दिखाने का जज्बा

डांडिया: हाय रे, शराब पुरानी और बोतल नई

News Add crime sks msp

 

दो दिनों से अलग-अलग जगह पर पूर्णिया शहर में डांडिया का प्रोग्राम बड़े ही जोश एवं उमंग से चल रहा है. साथियों ने मुझसे कहा- चलो डांडिया देखेंगे. हमने कहा- डांडिया खेलेंगे बोलो. दोस्तों ने कुछ समझ नहीं. लेकिन दोस्तों के साथ मैं चला गया. स्टेज पर छोटे-छोटे डंडों के साथ कलाकार ब्रेक डांस कर रहे थे तो मंच के नीचे युवाओं की भीड़ और युगल जोड़ियों का बोल्ड डांस चल रहा था. लेकिन हां, सारे लोगों के हाथों में रंग-बिरंगे डंडे थे. डंडे बजाकर और थिरक थिरक कर लोगों ने जमकर मस्ती की. हमारा क्या था? डांडिया का प्रोग्राम तो सिर्फ देखना ही था? इसी बीच एनाउंसर महोदया ने डांडिया का महत्व बताया और कहा- शरद ऋतु के आगमन के अवसर पर नवरात्र के मौके पर डांडिया एक हेल्दी परंपरा है, इस कार्यक्रम के जरिए लोग झूमते गाते और नाचते हैं तो शरीर का जॉगिंग हो जाता है और नई ऊर्जा का संचार हो जाता है. बस इतना अनाउंस होना था कि जो जहां थे वहीं झुंड बनाकर और गोल गोल चक्कर लगाकर थिरकने लगे. सभी के हाथ में 2 फीट का पतला पतला रंगीन डंडा था. डांडिया के बारे में लोगों से पूछा तो कहा अब तो पूरे इंडिया में डांडिया चलता है. अधिकांश लोगों ने कहा यह गुजरात की परंपरा है. मुझे 50 साल पुरानी बात याद आने लगी. वर्ष 1973 में मेरी उम्र करीब 4-5 साल की रही होगी. उस समय में सरकारी स्कूल में नहीं बल्कि एक निजी पाठशाला का छात्र हुआ करता था. उस समय पाठशाला के गुरुजी छात्रों से पैसा नहीं लेते थे. उनके अभिभावकों से या तो अनाज मिल जाता था या बख्शीश मिल जाती थी. मुझे याद है दशहरा और दीपावली के बीच का दिन. मुझे याद है होली के एक महीने पहले का दिन. उस समय इसी तरह के छोटे-छोटे डंडे हम लोग बनाया करते थे. उस सीजन में प्रत्येक शनिवार को सभी छात्रों का झुंड गुरुजी के साथ डंडे बजाते, नाचते-झूमते एक-एक कर छात्रों के घर जाते थे और डंडे बजाकर गाते थे- लाल-लाल ढाबुआ… मां बाप के कौशल(caution mony) निकाल रे बबुआ… गाना बजाना गाकर सभी बच्चे एक एक बच्चे के घर जाकर माता-पिता की प्रार्थना करते थे और उनसे कुछ पैसे मांग कर गुरुजी की झोली भरते थे. पूर्णिया के साहित्यकार सह उपन्यासकार चंद्रकांत राय ने भी 50 साल पहले इसी तरह का डांडिया खेला था, जब बचपन में स्कूल में पढ़ते थे. कितना अनुशासन और कितनी भावुक दृश्य होता था उस समय. अपने बच्चों के लिए माता-पिता बांस के खूंटा की छेद अथवा चुकिया से पैसे निकाल कर गुरुजी को देते और उनकी नजर में बच्चों का मनोबल बढ़ाते थे. इसी बीच मेरे साथियों ने कहा- अरे नाचोगे भी या तमाशबीन बने रहोगे? मजाक भी करने लगे- लगता है भाभी साथ में नहीं है इसीलिए नहीं नाच रहा है. पता नहीं किस दुनिया में खोया हुआ है यह! मेरी तंद्रा टूट गई. साथियों को कहा चलो, घर चलते हैं. रास्ते में काफी चिंतन होने लगा कि आज की पीढ़ी को पता नहीं, जिसे आज गुजरात और हरियाणा का डांस बता रहे हैं- वह तो हमारे पुरानी संस्कृति में 50 साल से भी पहले रही है. कथाकार चंद्रकांत राय भी बताते हैं यह परंपरा अंग प्रदेश के क्षेत्र में दशकों से रही है. तब जाकर हमें लगा कि डांडिया कोई नया नहीं? सिर्फ नया अंदाज में बड़ी तेजी से उभरा है. मुझे तो लगने लगा कि पूर्णिया की डांडिया वही है सिर्फ स्टाइल बदला है. यानि शराब पुरानी है और बोतल नई.

News add 2 riya

नोट:- यह मेरे अपने अनुभव है. हो सकता है कि आपके पास इससे भी अच्छा अनुभव हो. मेरी जितनी जानकारी थी मैंने शेयर किया. अच्छा नहीं लगे तो माफ कीजिएगा. इस संस्मरण के माध्यम से मैं किसी की टिप्पणी भी नहीं कर रहा.

🙏🙏🙏
आपका प्रिय
भूषण, वरिष्ठ पत्रकार, पूर्णिया.

News Add 3 sks

Get real time updates directly on you device, subscribe now.

Sampurn Bharat Banner
Sampurn Bharat Banner