✍ संपादकीय व्यंग्य✍️
बिहार की राजनीति में अचानक जैसे कोई पुराना रेडियो फिर से बज उठा हो। बरसों की खामोशी के बाद जब लालू प्रसाद यादव सासाराम की धरती पर मंच पर उतरे, तो लगा जैसे जनता को मुफ्त का कॉमेडी शो मिल गया। भीड़ का शोर, हंसी की गूंज और तालियों की तड़तड़ाहट—सबने मिलकर माहौल ऐसा बना दिया मानो चुनावी सभा नहीं बल्कि लोकनाट्य हो रहा हो।
लालू ने माइक संभाला और कहा—“लागल लागल झुलनियाँ में धक्का, बलम कलकत्ता गाईल।” बस! इतना सुनते ही पूरा पंडाल हंसी से लोटपोट। यही तो लालू की खासियत है—जहां आंकड़े और घोषणापत्र बेकार हो जाते हैं, वहीं उनका एक ठेठ कटाक्ष जनता को हंसा-हंसा कर पिघला देता है।
🔹 राजनीति की वापसी या ठहाकों का मेला?
लंबे अर्से से बीमारियों और अदालतों की राजनीति में उलझे लालू जब दोबारा फॉर्म में दिखे, तो सवाल उठने लगे—क्या यह वापसी सचमुच राजनीति बदलेगी या बस “कॉमेडी क्लब” का नया सीजन बनेगी? जनता ठहाके तो खूब लगा रही है, लेकिन क्या वोट भी ठहाकों से निकलेंगे—यह सोचने वाली बात है।
🔹महागठबंधन की ‘हंसी थेरेपी’तेजस्वी यादव अभी भी सपनों के मुख्यमंत्री जैसे दिखते हैं। पापा के ठेठ अंदाज और चुटकुलों से जरूर मंच गरम हो रहा है, पर अगर तेजस्वी नींद से नहीं जागे और लालू के पुराने तीरों पर ही ताली बजाते रह गए, तो राजनीति जनता के लिए “फैमिली एंटरटेनमेंट शो” बन जाएगी।
🔹 जनता का नजरिया:-बिहार की जनता लालू की राजनीति देख भी चुकी है और भुगत भी चुकी है। रेलमंत्री के दिनों के “प्लेटफॉर्म वाली खीर-पकौड़ी” की कहानियाँ आज भी ताज़ा हैं। जनता हंसी से लोटपोट तो होगी, मगर सवाल यही है—क्या बिहार फिर वही दौर दोहराना चाहेगा?
🔹 निष्कर्ष:- लालू की ठसक और चुटकुलेबाज़ी महागठबंधन के लिए इंजेक्शन तो है, लेकिन सत्ता की ऑक्सीजन सिलिंडर तभी बन पाएगी जब ठहाकों के साथ स्पष्ट नीति और साफ़ एजेंडा भी दिखे। वरना इतिहास यही कहेगा—“लालू जनता को गुदगुदाते रहे, और सत्ता हाथ से फिसलती रही।”
⚠️ अस्वीकरण (Disclaimer):- इस व्यंग्यात्मक लेख का उद्देश्य किसी जाति, वर्ग, पार्टी अथवा नस्ल को आहत करना नहीं है। इसका मकसद केवल पाठकों को हल्का-फुल्का हँसाना और गुदगुदाना है।