“पूर्णियां के बैरगाछी से बिहार के मुख्यमंत्री तक का सफ़र”
✍️ स्मृति विशेष संपादकीय ✍️
आज हम याद कर रहे हैं बिहार के पहले दलित मुख्यमंत्री भोला पासवान शास्त्री को, जिनकी सादगी, ईमानदारी और जनसेवा आज भी लोगों के लिए मिसाल है।पूर्णिया जिला अंतर्गत के.नगर प्रखंड के बैरगाछी गाँव में जन्मे भोला बाबू की कहानी हर उस इंसान के लिए प्रेरणा है जो संघर्ष के रास्ते से शिखर तक पहुँचने का सपना देखता है।बनमनखी विधानसभा के प्रथम विधायक बने शास्त्री जी ने राजनीति में अपनी शुरुआत कांग्रेस से की, लेकिन उनका असली परिचय था जनता के लिए समर्पण और नैतिकता का अनुशासन।
सत्ता का सफर: मुख्यमंत्री बने बैलगाड़ी से :-
22 मार्च 1968 का दिन भारतीय लोकतंत्र में दर्ज है—जब बैलगाड़ी से चलकर बिहार को मिला देश का पहला दलित मुख्यमंत्री। वर्ष-1968, 1969 और 1971–72—तीन बार उन्होंने बिहार की सत्ता संभाली, भले ही अस्थिर राजनीति के कारण कार्यकाल छोटे रहे। मुख्यमंत्री बनने के बाद भी वे अपने गाँव जाने के लिए बैलगाड़ी का ही सहारा लेते थे, क्योंकि वहाँ सड़क नहीं थी।जब उनके भतीजे ने गाँव में सड़क बनवाने की गुज़ारिश की तो भोला बाबू ने साफ कहा—“अगर मैं अपने गाँव में सड़क बनवा दूँगा तो मुझ पर पक्षपात का दाग लग जाएगा।”
📚 राजनीतिक सादगी और संघर्ष 📚
उनकी राजनीति किसी विलासिता से नहीं, बल्कि सादगी और ईमानदारी से परिभाषित होती थी। बड़ी–बड़ी ऑफिशियल मीटिंग्स भी वे पेड़ के नीचे कर लिया करते थे।मुख्यमंत्री होने के बावजूद झोपड़ी में सो जाना उनके लिए सामान्य था।वर्ष-1969 और 1971 के राजनीतिक संकटों के बीच उन्होंने इस्तीफ़ा देकर सत्ता से समझौता करने की बजाय ईमानदारी को चुना।
लोकतांत्रिक कांग्रेस से केंद्र की राजनीति तक:
1967 के चुनाव और कांग्रेस टूटने के बाद उन्होंने विनोदानंद झा के साथ लोकतांत्रिक कांग्रेस बनाई। बार–बार सरकार गिरने, राष्ट्रपति शासन और जोड़–तोड़ की राजनीति के बावजूद उन्होंने सत्ता को व्यक्तिगत लाभ का माध्यम नहीं बनने दिया। इंदिरा गांधी ने उन्हें राज्यसभा भेजा और केंद्र सरकार में शहरी विकास व आवास मंत्री बनाया।वर्ष-1978 में जनता पार्टी की सरकार बनी तो वे दलित–आदिवासी अधिकारों के प्रतीक बने और अनुसूचित जाति–जनजाति आयोग (SC/ST Commission) के पहले अध्यक्ष बने।
ज़मीन से जुड़ी विरासत और आज का परिवार :-
शास्त्री जी की सबसे बड़ी ताक़त थी जनता से सीधा जुड़ाव। लेकिन विडंबना देखिए—1984 में जब उनका निधन हुआ तो परिवार के पास इतना भी साधन नहीं था कि पूरे रीति–रिवाज से उनका श्राद्ध कर सके। आज भी उनके परिवार के लोग बैरगाछी गाँव में झोपड़ी में रहते हैं और मनरेगा में मजदूरी करते हैं। यह तस्वीर न केवल एक मुख्यमंत्री की सादगी दिखाती है बल्कि यह भी दर्शाती है कि दलित समाज की स्थिति और उनके नेताओं की विरासत को संभालने में व्यवस्था कितनी विफल रही है।
✍️ आज के नेताओं के लिए सबक ✍️
भोला पासवान शास्त्री की कहानी हमें यह सिखाती है—
- सत्ता जनता के लिए है, स्वार्थ के लिए नहीं।
- ईमानदारी और सादगी ही असली पूँजी है।
- दलित समाज के उत्थान के लिए संघर्ष केवल कानून से नहीं, व्यक्तिगत आदर्श से भी होता है।
- राजनीतिक अस्थिरता के बावजूद लोकतांत्रिक परंपरा को जीवित रखना ही नेतृत्व का असली चेहरा है।
आज जब राजनीति में परिवारवाद, भ्रष्टाचार और विलासिता पर सवाल उठते हैं, तब भोला बाबू की विरासत यह संदेश देती है कि नेता वही है जो जनता के बीच खड़ा हो, जनता के साथ जीए और सत्ता को सेवा का माध्यम बनाए।
🙏: नमन उस महान सपूत को :🙏
बिहार के तीन बार के मुख्यमंत्री, केंद्र सरकार के मंत्री और SC/ST आयोग के पहले अध्यक्ष भोला पासवान शास्त्री का जीवन इस बात का प्रतीक है कि राजनीति की ऊँचाई आपके पद से नहीं, बल्कि आपके आचरण से तय होती है।आज उनकी 112वीं जयंती पर सम्पूर्ण भारत उन्हें शत–शत नमन करता है और यही कहता है—
“अगर सच में कुछ बनना है तो भोला पासवान शास्त्री जैसा बनो।”