भागलपुर के सीने में हैं इतिहास के अहम पन्ने.

सुप्रसिद्ध इतिहासकार कयामुद्यीन अहमद ने ‘कॉरपस ऑफ अरेबिक एण्ड पर्सियन इंसक्रिप्संस ऑफ बिहार की भूमिका मे लिखा है,’ पुरानवेख समय की रेत पर पूर्व की पीढि़यों के पदचिह्न से है। परिवर्तन की बयार ने एक तरह से इन पुराभिलेखों पर कहर बरपायें है और इनमें से कई के वजूद तक मिट गए है। पर जो कुछ बच पाए है उनका अपने हित मे संरक्षण व संधारण करना हमारा दायित्व बनता है क्योंकि इतिहास के अजाने गलियारों मे झाकने के अक्सर यही हमारे एकमात्र विश्वसनीय पथप्रदर्शक होते है।’ वस्तुत: इतिहास न सिर्फ अतीत मे झांकने का एक माध्यम होता है, वरन् यह हमारे वजूद और जद्योजेहद को समझने की दृष्टि भी प्रदान करता है। और, यदि हम उसे भूलने लगते है तो न सिर्फ हमारा इतिहास अपितु भूगोल भी बेहाल हो जाता है। मिशाल के तौर पर भागलपुर -कहलगाँव पथ की ही बात करे तो इतिहास को भूलाकर इसकी अहमियत से हम इस कदर मसरूफ हो गए कि इसका वर्तमान भी मिट जाने को है। जाहिर है कि हमने अपने इतिहास को बिसुरा तो हम क्या थे, क्या हो गये है हम का विलाप करने के अलावे और कोई विकल्प नही बचेगा ।

विश्वविख्यात विक्रमशिला बौद्ध महाविहार तक ले जाने वाला यह भागलपुर व्रिकमशिला पथ मुगलकाल मे कभी शाही सवारियों व सल्तनत की फौजों के आवागमन का मार्ग था । भागलपुर जिला गजेटियर (1965) बताता है कि मुगलकाल मे बंगाल जाने का यही एकमात्र सुगम पथ था। बंगाल अभियान के दौरान बादशाह हुमायूँ इधर से होकर गुजर थे। 1573 और 1575 मे अकबरी फौज के घोड़ों की टाप इस रोड पर गूंजे थे। अफगानी विद्रोह को कुचलने हेतु सेनापति मानसिंह ने भागलपुर मे अस्थाई सैनिक छावनी बनाई थी। 1580 मे अकबर के खिलाफ हुए सेना के बगावत के समय जब 30 हजार विद्रोहियों ने भागलपुर मे डेरा डाल रखा था, तो टोडरमल ने मुंगेर से कैम्प कर इसे कुचला था। मुहम्मद बिन बख्तियार खिलजी के हमले के बाद अंग व बंग के दिल्ली के मुस्लिम शासकों के अधीनस्थ आ जाने पर यह क्षेत्र क्रमश: तुर्क-अफगान, सैयद, लोदी एवं मुगलों के द्वारा शासित रहा।
समय के साथ फेर-बदल मे आज भले मुंगेर व संताल परगना (झारखंड) प्रमंडल अलग हो गए हों, पर पूर्व मे कहलगाँव, मुंगेर, सूरजगढ़ा और बेगूसराय एवं राजमहल, तेलियागढ़ी, सकरीगली व उधवानाला (संताल परगना) का पूरा क्षेत्र तथा पड़ोसी बंगाल का गौर (मालदा जिला) भागलपुर से जुड़ा था जहाँ कई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक घटनाएं अंजाम पायीं। सल्तनत और मुगलकाल का प्रकाश डालते हुए डॉ कयामुद्यीन अहमद बताते है कि उत्तर भारत मे शुरूआती दौर मे बिहार-बंगाल में मुगल और पठानों के बीच कई संघर्ष हुए। मुगल से सत्ता हथियाने के क्रम में बिहार के इसी क्षेत्र से फरीद खाँ (शेरशाह) का उदय हुआ था। पानीपत की दूसरी लड़ाई (1556) जब हिन्दुस्तान मे मुगल शासन पूर्णतया स्थापित हो गया था, के बाद के भी 20 वर्षो तक बिहार-बंगाल पर पठानों का अधिपत्य रहा। भागलपुर के साथ-साथ इसके पड़ोस के मुंगेर जिला का भी विशिष्ट भैगोलिक स्थिति के कारण अत्यंत महत्व रहा है। डॉ.बीपी ़अम्बष्ट की बिहार ‘इन द एज ऑफ द ग्रेट मुगल अकबर’ के अनुसार मुंगेर सरकार सूबा बिहार का पूरब मे स्थित अंतिम क्षेत्र था और बिहार व बंगाल सूबों के सीमाने का काम करता था। इस पृष्टभूमि मे बिहार तथा विशेषकर भागलपुर का देश व सूबे के इतिहास मे विशेष महत्व रहा है। किंतु गहन अध्ययन तथा शोध न होने से इसके कई पक्ष अनुद्वभाषित है। इस कारण इस क्षेत्र के इतिहास के अछूते आयामों पर गौर करना एक रोचक अनुभव होगा ।

 

साभार:-जागरण©