“टिकट का मौसम और डांडिया की धुन”
बिहार में चुनावी बिगुल बजते ही सियासत का डांडिया शुरू हो गया है —हर पार्टी अपने-अपने रंग के कपड़े पहनकर नाचने को तैयार है। फिलहाल सबसे लोकप्रिय धुन है — “टिकट, टिकट…कहाँ है टिकट?”
कुछ दलों ने तो बाकायदा भावी प्रत्याशियों से “रसीद” कटवानी शुरू कर दी है।कहते हैं, “जनसेवा” अब आवेदन से नहीं, एंट्री फी से तय होती है।बिलकुल वैसे ही जैसे डांडिया फेस्टिवल में पास खरीदने पड़ते हैं —फर्क बस इतना है कि वहाँ संगीत बजता है, यहाँ “सियासत”।
पार्टी दफ्तरों के बाहर अफरातफरी है। किसी के हाथ में “टिकट आवेदन”, तो किसी के पास “सिफारिश पत्र”।
सब जानते हैं कि पटना से दिल्ली की दूरी सिर्फ मीलों में नहीं, “कनेक्शन” और “कलेक्शन” में भी मापी जाती है।
कई नेता अपनी पार्टी की “केमेस्ट्री” देखकर “भौतिकी” की तरह अदृश्य हो चुके हैं —वो जानते हैं, टिकट उनकी फाइल के साथ फाइल हो चुकी है। कुछ ने रणनीति बदल ली है —“न तुमको लेने देंगे, न हम पाएंगे” — और नौ-दो-ग्यारह हो लिए हैं।
उधर, सोशल मीडिया पर चुनाव-विश्लेषण का मेला लगा है।हर दूसरा व्यक्ति अब “राजनीतिक ज्योतिषी” है।
कहीं टिकट की भविष्यवाणी, कहीं सीट की गणना,
सबके पास डेटा है — बस “वोटर” गायब है।
मीडिया भी पीछे नहीं —रिपोर्टर अब “इलेक्शन टूरिज्म” पर निकल चुके हैं।किसी चैनल पर “बिहार का मूड”,
तो कहीं “कौन बनेगा उम्मीदवार?” जैसे शो चल रहे हैं।
और इन सबके बीच, बिहार के कई जिले अब भी जलमग्न हैं —सड़कें टूटी हैं, घर डूबे हैं, पर बैनर अभी भी टंगे हैं।
जनता किनारे खड़ी ताली बजा रही है —राजनीति के डांडिया में उसका प्रवेश निषेध है।
सवाल अब भी वही है —बिहार की राजनीति में कब आएगा ऐसा मौसम,जब जनसेवा के टिकट पर नाच शुरू होगा — न कि रसीद के?